राग- गौड़ सारंग
ठाठ - कल्याण (मतान्तर में कई लोग इसे विलावल ठाठ से उत्पन्न भी मानते हैं)
दोनों मध्यम का प्रयोग
गायन समय- दोपहर या मध्यान्ह काल
वादी - ग
संवादी- ध
जाति- सम्पूर्ण (*वक्र सम्पूर्ण- अर्थात आरोह व अवरोह में सभी स्वरों का प्रयोग *वक्र होता है)
*वक्र स्वर का अर्थ - जिस स्वर का प्रयोग सीधे न होकर घुमा कर किया जाए - उदाहरानार्थ 'सा रे ग म' सीधे न गा कर अगर 'सा रे ग रे म' गाया जाए तो ग वक्र स्वर हुआ क्योंकि ग के बाद सीधे म न लगा कर रे पर उतर कर फिर म लगा )
विशेषताएं - तीव्र म का अल्प प्रयोग केवल आरोह में प के साथ ही होता है|
नि का प्रयोग भी अल्प है
' प रे' स्वर संगति का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है
विशेष स्वर संगति-
- सा, ग रे म ग, प ऽ रे सा
- ग रे म ग
-रे ग रे म ग प ऽ रे सा
आरोह - सा ग रे म ग, प म॑ ध प, नि ध सां|
अवरोह- सां ध, नि प, ध म॑ प, ग रे म ग, प रे सा|
पकड़ - सा, ग रे म ग प ऽ रे सा|
नीचे पंडित भीमसेन जोशी की आवाज़ में विलंबित ख़याल व द्रुत छोटा ख़याल
उसके नीचे पंडित उल्हास कशल्कर द्वारा गाया प्रसिद्द छोटा ख़याल - पियु पलन लागी मोरी
भारतीय सिनेमा में गौड़ सारंग को गाया गया है कई फिल्मों में|
फिल्म 'छोटी छोटी बातें' में मीना कपूर की आवाज़ में
कुछ और ज़माना कहता है
Tuesday, September 27, 2016
Tuesday, March 15, 2016
सात स्वर और उनका प्रयोग
भारतीय संगीत आधारित है स्वरों और ताल के अनुशासित प्रयोग पर। सात स्वरों के समुह को सप्तक कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के सात स्वर हैं-
सा(षडज), रे(ऋषभ), ग(गंधार), म(मध्यम), प(पंचम), ध(धैवत), नि(निषाद)
अर्थात
सा, रे, ग, म, प ध, नि
सा और प को अचल स्वर माना जाता है। जबकि अन्य स्वरों के और भी रूप हो सकते हैं। जैसे 'रे' को 'कोमल रे' के रूप में गाया जा सकता है जो कि शुद्ध रे से अलग है। इसी तरह 'ग', 'ध' और 'नि' के भी कोमल रूप होते हैं। इसी तरह 'शुद्ध म' को 'तीव्र म' के रूप में अलग तरीके से गाया जाता है।
गायक या वादक गाते या बजाते समय मूलत: जिस स्वर सप्तक का प्रयोग करता है उसे मध्य सप्तक कहते हैं। ठीक वही स्वर सप्तक, जब नीचे से गाया जाये तो उसे मंद्र, और ऊपर से गाया जाये तो तार सप्तक कह्ते हैं। मन्द्र स्वरों के नीचे एक बिन्दी लगा कर उन्हें मन्द्र बताया जाता है। और तार सप्तक के स्वरों को, ऊपर एक बिंदी लगा कर उन्हें तार सप्तक के रूप में दिखाया जाता है। इसी तरह अति मंद्र और अतितार सप्तक में भी स्वरों को गाया-बजाया जा सकता है।
अर्थात- ध़ ऩि सा रे ग म प ध नि सां रें गं...
संगीत के नये विद्यार्थी को सबसे पहले शुद्ध स्वर सप्तक के सातों स्वरों के विभिन्न प्रयोग के द्वारा आवाज़ साधने को कहा जाता है। इन को स्वर अलंकार कहते हैं।
आइये कुछ अलंकार देखें
१) सा रे ग म प ध नि सां (आरोह)
सां नि ध प म ग रे सा (अवरोह)
(यहाँ आखिरी का सा तार सप्तक का है अत: इस सा के ऊपर बिंदी लगाई गयी है)
इस तरह जब स्वरों को नीचे से ऊपर सप्तक में गाया जाता है उसे आरोह कहते हैं। और ऊपर से नीचे गाते वक्त स्वरों को अवरोह में गाया जाना कहते हैं।
और अलंकार देखिये-
२)सासा रेरे गग मम पप धध निनि सांसां । सांसां निनि धध पप मम गग रेरे सासा।
३) सारेग, रेगम, गमप, मपध, पधनि, धनिसां। सांनिध, निधप, धपम, पमग, मगरे, गरेसा।
४) सारे, रेग, गम, मप, पध, धनि, निसां। सांनि, निध, धप, पम, मग, गरे, रेसा।
५) सारेगमप, रेगमपध, गमपधनि, मपधनिसां। सांनिधपम, निधपमग, धपमगरे पमगरेसा।
६)सारेसारेग, रेगरेगम, गमगमप, मपमपध, पधपधनि, धनिधनिसां। सांनिसांनिध, निधनिधप, धपधपम, पमपमग, मगमगरे, गरेगरेसा।
७)सारेगसारेगसारेसागरेसा, रेगमरेगमरेगरेमगरे, गमपगमपगमगपमग, मपधमपधमपमधपम, पधनिपधनिपधपनिधप, धनिसांधनिसांधनिधसांनिध, निसांरेनिसांरेनिसांनिरेंसांनि, सांरेंगंसांरेंगंसांरेंसांगंरेंसां।
सांरेंगंसांरेंगंसांरेंसांगंरेंसां, निसांरेनिसांरेनिसांनिरेंसांनि,धनिसांधनिसांधनिधसांनिध, पधनिपधनिपधपनिधप, मपधमपधमपमधपम, गमपगमपगमगपमग, रेगमरेगमरेगरेमगरे, सारेगसारेगसारेसागरेसा।
स्वरों और हारमोनियम के बारे में-
http://www.sharda.org/vocal/vocal-harmonium-lesson-1/
http://www.sharda.org/vocal/vocal-harmonium-lesson-2/
http://www.sharda.org/vocal/vocal-harmonium-lesson-3/
(You need to register to go to the above website, registration is free)
(आभार: इस वेबसाइट की जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है। मुझे खुशी है कि भारतीय संगीत के ऊपर ऐसा एक जालघर मौजूद है। गूगल सर्च करते वक्त इस वेबसाइट का पता चला मुझे।)
अगली बार संगीत संबंधी कुछ ज़रूरी परिभाषायें...
राग मालकौंस
राग मालकौंस ठाठ भैरवी से उत्पन्न माना जाता है.
इस राग की जाति- औडव-औडव है. रे व प वर्ज्य स्वर हैं,
गायन समय रात का तीसरा प्रहर है.
वादी - म, संवादी- सा
इस राग में ग, ध, व नि कोमल लगते हैं
आरोह- सा ग॒ म ध॒ नि॒ सां
अवरोह- सां नि॒ म ग॒ सा
पकड़- ध़॒ नि़॒॒॒ सा म, ग़॒ म ग़॒ सा
विशेषता- इस राग का चलन तीनों सप्तक में एक ही जैसा होता है
इस राग में अगर नि को शुद्ध कर दिया जाए तो यह राग चन्द्रकोश हो जाएगा
इस राग के न्यास के स्वर हैं - सा ग॒ म
इस राग में मींड, गमक और कण का खूब प्रयोग किया जाता है
कुछ विशेष स्वर संगतियाँ -
म ग॒ म ग॒ सा
ग॒ म ध़॒ नि़॒ सां
सां नि॒ ध॒ नि॒ ध॒ म
राग मालकौंस या मालकोश में सुनिये रशीद खां द्वारा गाई यह प्रसिद्ध बन्दिश (आज मोरे घर आये ...)
इस राग की जाति- औडव-औडव है. रे व प वर्ज्य स्वर हैं,
गायन समय रात का तीसरा प्रहर है.
वादी - म, संवादी- सा
इस राग में ग, ध, व नि कोमल लगते हैं
आरोह- सा ग॒ म ध॒ नि॒ सां
अवरोह- सां नि॒ म ग॒ सा
पकड़- ध़॒ नि़॒॒॒ सा म, ग़॒ म ग़॒ सा
विशेषता- इस राग का चलन तीनों सप्तक में एक ही जैसा होता है
इस राग में अगर नि को शुद्ध कर दिया जाए तो यह राग चन्द्रकोश हो जाएगा
इस राग के न्यास के स्वर हैं - सा ग॒ म
इस राग में मींड, गमक और कण का खूब प्रयोग किया जाता है
कुछ विशेष स्वर संगतियाँ -
म ग॒ म ग॒ सा
ग॒ म ध़॒ नि़॒ सां
सां नि॒ ध॒ नि॒ ध॒ म
राग मालकौंस या मालकोश में सुनिये रशीद खां द्वारा गाई यह प्रसिद्ध बन्दिश (आज मोरे घर आये ...)
Labels:
Raga Malkauns,
Rashid Khan
Wednesday, November 12, 2014
Tuesday, December 07, 2010
राग ललित- तरपत हूँ जैसे जल बिन मीन...
द्वै मध्यम कोमल ऋषभ, पंचम सुर बरजोई।
सम संवादी वादी ते, ललित राग शुभ होई॥
ठाठ - पूर्वी
वर्ज्य स्वर- प
जाति - षाडव षाडव
वादी- शुद्ध म
संवादी- सा
गायन समय- दिन का प्रथम प्रहर
आरोह: ऩि रे॒ ग म, म॑ म ग, म॑ ध॒ नि सां।
अवरोह: रें॒ नि ध॒ म॑ म ग रे॒ सा।
पकड़: नि रे॒ ग म, म॑ म ग, म॑ ध॒ म॑ म ग, ग ऽ म॑ ग रे॒ सा।
-कुछ गायक ललित में शुद्ध धैवत का प्रयोग करते हैं, किंतु अधिकांश गायक इसमें कोमल धैवत ही प्रयोग करते हैं। भातखंडे जी ने इसमें शुद्ध ध का प्रयोग ही माना है और इसे मारवा थाठ के अंतर्गत रखा है।
- दोनों मध्यमों का एक साथ प्रयोग इस राग की विशेषता है। किसी भी राग में किसी स्वर के दो रूपों का एक साथ प्रयोग होना नियमों के विरुद्ध माना जाता है मगर, राग की रंजकता बढ़ाने के लिये, इस नियम के अपवाद में राग ललित ही एक ऐसा राग है जहाँ किसी स्वर का दो रूपों में एक साथ प्रयोग किया गया है।
- न्यास के स्वर- ग और म
- " ध॒, म॑ म ग " इस स्वर सनुदाय का प्रयोग मीड़ में लिया जाता है और इसे ललितांग कहते हैं।
- इस राग का चलन सा से प्रारंभ न हो कर, मंद्र नि से हुआ करती है। जैसे- ऩि रे॒ ग म...
तरपत हूँ जैसे जल बिन मीन...
उस्ताद फ़ैयाज़ खां की आवाज़ में-
तरपत हूँ जैसे जल बिन मीन...
उस्ताद फ़ैयाज़ खां की आवाज़ में-
और प्रसिद्ध- जोगिया मेरे घर आये- के स्वर में- उसके पहले बड़ा खयाल।
Friday, February 05, 2010
राग पूरिया धनाश्री
तीव्रास्तु नि ग मा यस्यां कोमलौ धैवतरिषभौ।पांशा संवादि ऋषभा, सायं पूरियाधनाश्रीका॥
--राग चन्द्रिकासार
१) थाट- पूर्वी
२) वादी- संवादी- पंचम व षडज
३) जाति- संपूर्ण संपूर्ण
४) कोमल स्वर- ऋषभ, धैवत
तीव्र स्वर- मध्यम
५) गायन समय- सायंकाल
आरोह: ऩि रे॒ ग म॑ प, म॑ ध॒ नि सां
अवरोह: रें॒ नि ध॒ प, म॑ ग, म॑ रे॒ ग, रे॒ सा
पकड़: ऩि रे॒ ग म॑ प, ध॒ प , म॑ ग म॑ रे॒ ग, रे॒ सा
६) यह राग पूरिया और धनाश्री रागों का मिश्रण है, मगर कई विद्वान इसे स्वतंत्र राग मानते हैं, क्यों कि प्रचलित धनाश्री राग काफ़ी थाट से उत्पन्न होता है। मगर अन्य विद्वानों का कहना है कि ये राग पूर्वी जन्य धनाश्री और पूरिया राग का मिश्रण है।
७) यह एक संधि प्रकाश राग है जो सायंकाल संधिक्षण में गाया बजाया जाता है।
८) म॑ रे॒ ग और रें॒ नि की संगति बहुत देखी जाती है इस राग में।
९) न्यास के स्वर हैं- सा, ग, प
१०) विशेष स्वर संगतियाँ-
ऩि रे॒ ग म॑ प
(प), म॑ ग म॑ रे॒ ग
रें नि ध प, म॑ ग, म॑ रे॒ ग
इस राग के क़रीबी राग हैं - पूर्वी, जैताश्री आदि।
आइये अब सुनते हैं पूरिया धनाश्री में भीमसेन जोशी का गाया प्रसिद्ध- पायलिया झंकार मोरी
और पंडित जसराज का गाया ये ख़्याल-
Friday, January 15, 2010
भारतीय शास्त्रीय संगीत
भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है भारतीय शास्त्रीय संगीत। आज से लगभग ३००० वर्ष पूर्व रचे गए वेदों को संगीत का मूल स्रोत माना जाता है। ऐसा मानना है कि ब्रह्मा जी ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया था। चारों वेदों में, सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या समगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। गुरू शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरू से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था व उन में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया। भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाट्यशास्त्र, भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है। इसकी रचना के समय के बारे में कई मतभेद हैं। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरत् नाट्य शास्त्र के बाद शारंगदेव रचित संगीत रत्नाकर, ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वाद्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है।
संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है व इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में अब बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था। १००० वीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को प्रबंध कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे... निबद्ध प्रबंध व अनिबद्ध प्रबंध। निबद्ध प्रबंध को ताल की परिधि में रह कर गाया जाता था जबकि अनिबद्व प्रबंध बिना किसी ताल के बंधन के, मुक्त रूप में गाया जाता था। प्रबंध का एक अच्छा उदाहरण है जयदेव रचित गीत गोविंद।
युग परिवर्तन के साथ संगीत के स्वरूप में भी परिवर्तन आने लगा मगर मूल तत्व एक ही रहे। मुगल शासन काल में भारतीय संगीत फ़ारसी व मुसलिम संस्कृति के प्रभाव से अछूता न रह सका। उत्तर भारत में मुगल राज्य ज़्यादा फैला हुआ था जिस कारण उत्तर भारतीय संगीत पर मुसलिम संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज़्यादा महसूस किया जा सकता है। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के बाहरी प्रभाव से अछूता ही रहा। इस तरह भारतीय संगीत का दो भागों में विभाजन हो गया :
१) उत्तर भारतीय संगीत या हिन्दुस्तानी संगीत
२) कर्नाटक शैली।
उत्तर भारतीय संगीत में काफ़ी बदलाव आए। संगीत अब मंदिरों तक सीमित न रह कर शहंशाहों के दरबार की शोभा बन चुका था। इसी समय कुछ नई शैलियॉं भी प्रचलन में आईं जैसे ख़याल, ग़जल आदि और भारतीय संगीत का कई नए वाद्यों से भी परिचय हुआ जैसे सरोद, सितार इत्यादि।
बाद में सूफ़ी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नए वाद्य प्रचलन में आए। आम जनता में भी प्रसिद्ध आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा।
भारतीय शास्त्रीय संगीत का आधार:
भारतीय शास्त्रीय संगीत आधारित है स्वरों व ताल के अनुशासित प्रयोग पर।सात स्वरों व बाईस श्रुतियों के प्रभावशाली प्रयोग से विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। सात स्वरों के समुह को सप्तक कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के ये सात स्वर इस प्रकार हैं
षडज (सा), ऋषभ(रे), गंधार(ग), मध्यम(म), पंचम(प), धैवत(ध), निषाद(नि)।
सप्तक को मूलत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है...मन्द्र सप्तक़, मध्य सप्तक व तार सप्तक।अर्थात सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में गाया बजाया जा सकता है।षड्ज व पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं क्योंकि इनके स्थान में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता और इन्हें इनके शुद्ध रूप में ही गाया बजाया जा सकता है जबकि अन्य स्वरों को उनके कोमल व तीव्र रूप में भी गाया जाता है। इन्हीं स्वरों को विभिन्न प्रकार से गूँथ कर रागों की रचना की जाती है।
राग क्या हैं :
राग संगीत की आत्मा हैं, संगीत का मूलाधार। राग शब्द का उल्लेख भरत नाट््य शास्त्र में भी मिलता है। रागों का सृजन बाईस श्रुतियों के विभिन्न प्रकार से प्रयोग कर, विभिन्न रस या भावों को दर्शाने के लिए किया जाता है। प्राचीन समय में रागों को पुरूष व स्त्री रागों में अर्थात राग व रागिनियों में विभाजित किया गया था।सिऱ्फ यही नहीं, कई रागों को पुत्र राग का भी दर्जा प्राप्त था। उदाहरणत: राग भैरव को पुरूष राग, और भैरवी, बिलावली सहित कई अन्य रागों को उसकी रागिनियॉं तथा राग ललित, बिलावल आदि रागों को इनके पुत्र रागों का स्थान दिया गया था।बाद में आगे चलकर पं व़िष्णु नारायण भातखंडे ने सभी रागों को दस थाटों में बॉंट दिया।अर्थात एक थाट से कई रागों की उत्पत्ति हो सकती थी। अगर थाट को एक पेड़ माना जाए व उससे उपजी रागों को उसकी शाखाओं के रूप में देखा जाए तो गलत न होगा। उदाहरणत: राग शंकरा, राग दुर्गा, राग अल्हैया बिलावल आदि राग थाट बिलावल से उत्पन्न होते हैं। थाट बिलावल में सभी स्वर शुद्ध माने गए हैं अत: तकनीकी दृष्टि से इस थाट से उपजे सभी रागों में सारे स्वर शुद्ध प्रयोग किए जाने चाहिए। मगर दस थाटों के इस सिद्धांत के बारे में कई मतांतर हैं क्योंकि कुछ राग किसी भी थाट से मेल नहीं खाते मगर उन्हें नियमरक्षा हेतु किसी न किसी थाट के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।
किसी भी राग में ज़्यादा से ज़्यादा सात व कम से कम पॉंच स्वरों का प्रयोग करना ज़रूरी है।इस तरह रागों को मूलत: ३ जातियों में विभाजित किया जा सकता है...
१) औडव जाति जहॉं राग विशेष में पॉंच स्वरों का प्रयोग होता हो
२) षाडव जाति जहॉं राग में छ: स्वरों का प्रयोग होता हो
३) संपूर्ण जाति जहॉं राग में सभी सात स्चरों का प्रयोग किया जाता हो।
राग के स्वरूप को आरोह व अवरोह गाकर प्रदर्शित किया जाता है जिसमें राग विशेष में प्रयुक्त होने वाले स्वरों को क्रम में गाया जाता है।
उदाहरण के लिए राग भूपाली का आरोह कुछ इस तरह है:
सा रे ग प ध सां।
किसी भी राग में दो स्वरों को विशेष महत्व दिया जाता है। इन्हें वादी स्वर व संवादी स्वर कहते हैं। वादी स्वर को राग का राजा भी कहा जाता है क्योंकि राग में इस स्वर का बहुतायत से प्रयोग होता है। दूसरा महत्वपूर्ण स्वर है संवादी स्वर जिसका प्रयोग वादी स्वर से कम मगर अन्य स्वरों से अधिक किया जाता है। इस तरह किन्हीं दो रागों में जिनमें एक समान स्वरों का प्रयोग होता हो, वादी और संवादी स्वरों के अलग होने से राग का स्वरूप बदल जाता है। उदाहरणत: राग भूपाली व देशकार में सभी स्वर समान हैं मगर वादी व संवादी स्वर अलग होने के कारण इन रागों में आसानी से फ़र्क बताया जा सकता है।
हर राग में एक विशेष स्वर समुह के बार बार प्रयोग से उस राग की पहचान दर्शायी जाती है। जैसे राग हमीर में 'ग म ध' का बार बार प्रयोग किया जाता है और ये स्वर समूह राग हमीर की पहचान हैं।
मुगल़कालीन शासन के दौरान ही शायद रागों के गाने बजाने का निर्धारित समय कभी प्रचलन में आया। जिन रागों को दोपहर के बारह बजे से मध्यरात्रि तक गाया बजाया जाता था उन्हें पूर्व राग कहा गया और मध्यरात्रि से दोपहर के बीच गाए बजाए जाने वाले रागों को उत्तर राग कहा गया। कुछ राग जिन्हें भोर या संध्याकालीन समय में गाया जाता था उन्हें संधिप्रकाश राग कहा गया। यही नहीं कुछ राग ऋतुप्रधान भी माने गए। जैसे राग मेघमल्हार वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला राग है। इसी तरह राग बसंत को बसंत ऋतु में गाए जाने की प्रथा है।
हमारी संस्कृति का एक स्तंभ भारतीय शास्त्रीय संगीत, जीवन को संवारने और सुरुचिपूर्ण ढंग से जीने की कला है। यह आधार है हर तरह के संगीत का साथ ही ऐसी गरिमामयी धरोहर है जिससे लोक और लोकप्रिय संगीत की अनेक धाराएँ निकलती हैं जो न सिर्फ हमारे तीज त्योहारों में राग रंग भरती हैं बल्कि हमारे विभिन्न संस्कारों और अवसरों में भी उल्लासमय बनाते हुए अनोखी रौनक प्रदान करती हैं।
--मानोशी
संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है व इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में अब बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था। १००० वीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को प्रबंध कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे... निबद्ध प्रबंध व अनिबद्ध प्रबंध। निबद्ध प्रबंध को ताल की परिधि में रह कर गाया जाता था जबकि अनिबद्व प्रबंध बिना किसी ताल के बंधन के, मुक्त रूप में गाया जाता था। प्रबंध का एक अच्छा उदाहरण है जयदेव रचित गीत गोविंद।
युग परिवर्तन के साथ संगीत के स्वरूप में भी परिवर्तन आने लगा मगर मूल तत्व एक ही रहे। मुगल शासन काल में भारतीय संगीत फ़ारसी व मुसलिम संस्कृति के प्रभाव से अछूता न रह सका। उत्तर भारत में मुगल राज्य ज़्यादा फैला हुआ था जिस कारण उत्तर भारतीय संगीत पर मुसलिम संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज़्यादा महसूस किया जा सकता है। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के बाहरी प्रभाव से अछूता ही रहा। इस तरह भारतीय संगीत का दो भागों में विभाजन हो गया :
१) उत्तर भारतीय संगीत या हिन्दुस्तानी संगीत
२) कर्नाटक शैली।
उत्तर भारतीय संगीत में काफ़ी बदलाव आए। संगीत अब मंदिरों तक सीमित न रह कर शहंशाहों के दरबार की शोभा बन चुका था। इसी समय कुछ नई शैलियॉं भी प्रचलन में आईं जैसे ख़याल, ग़जल आदि और भारतीय संगीत का कई नए वाद्यों से भी परिचय हुआ जैसे सरोद, सितार इत्यादि।
बाद में सूफ़ी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नए वाद्य प्रचलन में आए। आम जनता में भी प्रसिद्ध आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा।
भारतीय शास्त्रीय संगीत का आधार:
भारतीय शास्त्रीय संगीत आधारित है स्वरों व ताल के अनुशासित प्रयोग पर।सात स्वरों व बाईस श्रुतियों के प्रभावशाली प्रयोग से विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। सात स्वरों के समुह को सप्तक कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के ये सात स्वर इस प्रकार हैं
षडज (सा), ऋषभ(रे), गंधार(ग), मध्यम(म), पंचम(प), धैवत(ध), निषाद(नि)।
सप्तक को मूलत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है...मन्द्र सप्तक़, मध्य सप्तक व तार सप्तक।अर्थात सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में गाया बजाया जा सकता है।षड्ज व पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं क्योंकि इनके स्थान में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता और इन्हें इनके शुद्ध रूप में ही गाया बजाया जा सकता है जबकि अन्य स्वरों को उनके कोमल व तीव्र रूप में भी गाया जाता है। इन्हीं स्वरों को विभिन्न प्रकार से गूँथ कर रागों की रचना की जाती है।
राग क्या हैं :
राग संगीत की आत्मा हैं, संगीत का मूलाधार। राग शब्द का उल्लेख भरत नाट््य शास्त्र में भी मिलता है। रागों का सृजन बाईस श्रुतियों के विभिन्न प्रकार से प्रयोग कर, विभिन्न रस या भावों को दर्शाने के लिए किया जाता है। प्राचीन समय में रागों को पुरूष व स्त्री रागों में अर्थात राग व रागिनियों में विभाजित किया गया था।सिऱ्फ यही नहीं, कई रागों को पुत्र राग का भी दर्जा प्राप्त था। उदाहरणत: राग भैरव को पुरूष राग, और भैरवी, बिलावली सहित कई अन्य रागों को उसकी रागिनियॉं तथा राग ललित, बिलावल आदि रागों को इनके पुत्र रागों का स्थान दिया गया था।बाद में आगे चलकर पं व़िष्णु नारायण भातखंडे ने सभी रागों को दस थाटों में बॉंट दिया।अर्थात एक थाट से कई रागों की उत्पत्ति हो सकती थी। अगर थाट को एक पेड़ माना जाए व उससे उपजी रागों को उसकी शाखाओं के रूप में देखा जाए तो गलत न होगा। उदाहरणत: राग शंकरा, राग दुर्गा, राग अल्हैया बिलावल आदि राग थाट बिलावल से उत्पन्न होते हैं। थाट बिलावल में सभी स्वर शुद्ध माने गए हैं अत: तकनीकी दृष्टि से इस थाट से उपजे सभी रागों में सारे स्वर शुद्ध प्रयोग किए जाने चाहिए। मगर दस थाटों के इस सिद्धांत के बारे में कई मतांतर हैं क्योंकि कुछ राग किसी भी थाट से मेल नहीं खाते मगर उन्हें नियमरक्षा हेतु किसी न किसी थाट के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।
किसी भी राग में ज़्यादा से ज़्यादा सात व कम से कम पॉंच स्वरों का प्रयोग करना ज़रूरी है।इस तरह रागों को मूलत: ३ जातियों में विभाजित किया जा सकता है...
१) औडव जाति जहॉं राग विशेष में पॉंच स्वरों का प्रयोग होता हो
२) षाडव जाति जहॉं राग में छ: स्वरों का प्रयोग होता हो
३) संपूर्ण जाति जहॉं राग में सभी सात स्चरों का प्रयोग किया जाता हो।
राग के स्वरूप को आरोह व अवरोह गाकर प्रदर्शित किया जाता है जिसमें राग विशेष में प्रयुक्त होने वाले स्वरों को क्रम में गाया जाता है।
उदाहरण के लिए राग भूपाली का आरोह कुछ इस तरह है:
सा रे ग प ध सां।
किसी भी राग में दो स्वरों को विशेष महत्व दिया जाता है। इन्हें वादी स्वर व संवादी स्वर कहते हैं। वादी स्वर को राग का राजा भी कहा जाता है क्योंकि राग में इस स्वर का बहुतायत से प्रयोग होता है। दूसरा महत्वपूर्ण स्वर है संवादी स्वर जिसका प्रयोग वादी स्वर से कम मगर अन्य स्वरों से अधिक किया जाता है। इस तरह किन्हीं दो रागों में जिनमें एक समान स्वरों का प्रयोग होता हो, वादी और संवादी स्वरों के अलग होने से राग का स्वरूप बदल जाता है। उदाहरणत: राग भूपाली व देशकार में सभी स्वर समान हैं मगर वादी व संवादी स्वर अलग होने के कारण इन रागों में आसानी से फ़र्क बताया जा सकता है।
हर राग में एक विशेष स्वर समुह के बार बार प्रयोग से उस राग की पहचान दर्शायी जाती है। जैसे राग हमीर में 'ग म ध' का बार बार प्रयोग किया जाता है और ये स्वर समूह राग हमीर की पहचान हैं।
मुगल़कालीन शासन के दौरान ही शायद रागों के गाने बजाने का निर्धारित समय कभी प्रचलन में आया। जिन रागों को दोपहर के बारह बजे से मध्यरात्रि तक गाया बजाया जाता था उन्हें पूर्व राग कहा गया और मध्यरात्रि से दोपहर के बीच गाए बजाए जाने वाले रागों को उत्तर राग कहा गया। कुछ राग जिन्हें भोर या संध्याकालीन समय में गाया जाता था उन्हें संधिप्रकाश राग कहा गया। यही नहीं कुछ राग ऋतुप्रधान भी माने गए। जैसे राग मेघमल्हार वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला राग है। इसी तरह राग बसंत को बसंत ऋतु में गाए जाने की प्रथा है।
हमारी संस्कृति का एक स्तंभ भारतीय शास्त्रीय संगीत, जीवन को संवारने और सुरुचिपूर्ण ढंग से जीने की कला है। यह आधार है हर तरह के संगीत का साथ ही ऐसी गरिमामयी धरोहर है जिससे लोक और लोकप्रिय संगीत की अनेक धाराएँ निकलती हैं जो न सिर्फ हमारे तीज त्योहारों में राग रंग भरती हैं बल्कि हमारे विभिन्न संस्कारों और अवसरों में भी उल्लासमय बनाते हुए अनोखी रौनक प्रदान करती हैं।
--मानोशी
Saturday, September 26, 2009
राग यमन- परिचय और दो बंदिश
राग यमन-
प्रथम पहर निशि गाइये ग नि को कर संवाद ।
जाति संपूर्ण तीवर मध्यम यमन आश्रय राग ॥
राग का परिचय -
1) इस राग को राग कल्याण के नाम से भी जाना जाता है। इस राग की उत्पत्ति कल्याण थाट से होती है अत: इसे आश्रय राग भी कहा जाता है (जब किसी राग की उत्पत्ति उसी नाम के थाट से हो)। मुगल शासन काल के दौरान, मुसलमानों ने इस राग को राग यमन अथवा राग इमन कहना शुरु किया।
2) इस राग की विशेषता है कि इसमें तीव्र मध्यम का प्रयोग किया जाता है। बाक़ी सभी स्वर शुद्ध लगते हैं।
3) इस राग को रात्रि के प्रथम प्रहर या संध्या समय गाया-बजाया जाता है। इसके आरोह और अवरोह में सभी स्वर प्रयुक्त होते हैं, अत: इसकी जाति हुई संपूर्ण-संपूर्ण (परिभाषा देखें)।
4) वादी स्वर है- ग संवादी - नि
आरोह- ऩि रे ग, म॑ प, ध नि सां ।
अवरोह- सां नि ध प, म॑ ग रे सा ।
पकड़- ऩि रे ग रे, प रे, ऩि रे सा ।
विशेषतायें-
१) यमन और कल्याण भले ही एक राग हों मगर यमन और कल्याण दोनों के नाम को मिला देने से एक और राग की उत्पत्ति होती है जिसे राग यमन-कल्याण कहते हैं जिसमें दोनों मध्यम का प्रयोग होता है।
२) यमन को मंद्र सप्तक के नि से गाने-बजाने का चलन है। ऩि रे ग, म॑ ध नि सां
३) इस राग में ऩि रे और प रे का प्रयोग बार बार किया जाता है।
४) इस राग को गंभीर प्रकृति का राग माना गया है।
५)इस राग को तीनों सप्तकों में गाया-बजाया जाता है। कई राग सिर्फ़ मन्द्र, मध्य या तार सप्तक में ज़्यादा गाये बजाये जाते हैं, जैसे राग सोहनी तार सप्तक में ज़्यादा खुलता है।
इस राग में कई मशहूर फ़िल्मी गाने भी गाये गये हैं।
सरस्वती चंद्र से- चंदन सा बदन, चंचल चितवन
राम लखन से- बड़ा दुख दीन्हा मेरे लखन ने
चितचोर से- जब दीप जले आना
भीगी रात से- दिल जो न कह सका वो ही राज़े दिल ....आदि।
आइये अब सुनें रशीद खां साहब को उनके तराने के साथ यहाँ क्लिक कर के
और राग यमन में पंडित राजन साजन मिश्र से ये मशहूर बंदिश।
प्रथम पहर निशि गाइये ग नि को कर संवाद ।
जाति संपूर्ण तीवर मध्यम यमन आश्रय राग ॥
राग का परिचय -
1) इस राग को राग कल्याण के नाम से भी जाना जाता है। इस राग की उत्पत्ति कल्याण थाट से होती है अत: इसे आश्रय राग भी कहा जाता है (जब किसी राग की उत्पत्ति उसी नाम के थाट से हो)। मुगल शासन काल के दौरान, मुसलमानों ने इस राग को राग यमन अथवा राग इमन कहना शुरु किया।
2) इस राग की विशेषता है कि इसमें तीव्र मध्यम का प्रयोग किया जाता है। बाक़ी सभी स्वर शुद्ध लगते हैं।
3) इस राग को रात्रि के प्रथम प्रहर या संध्या समय गाया-बजाया जाता है। इसके आरोह और अवरोह में सभी स्वर प्रयुक्त होते हैं, अत: इसकी जाति हुई संपूर्ण-संपूर्ण (परिभाषा देखें)।
4) वादी स्वर है- ग संवादी - नि
आरोह- ऩि रे ग, म॑ प, ध नि सां ।
अवरोह- सां नि ध प, म॑ ग रे सा ।
पकड़- ऩि रे ग रे, प रे, ऩि रे सा ।
विशेषतायें-
१) यमन और कल्याण भले ही एक राग हों मगर यमन और कल्याण दोनों के नाम को मिला देने से एक और राग की उत्पत्ति होती है जिसे राग यमन-कल्याण कहते हैं जिसमें दोनों मध्यम का प्रयोग होता है।
२) यमन को मंद्र सप्तक के नि से गाने-बजाने का चलन है। ऩि रे ग, म॑ ध नि सां
३) इस राग में ऩि रे और प रे का प्रयोग बार बार किया जाता है।
४) इस राग को गंभीर प्रकृति का राग माना गया है।
५)इस राग को तीनों सप्तकों में गाया-बजाया जाता है। कई राग सिर्फ़ मन्द्र, मध्य या तार सप्तक में ज़्यादा गाये बजाये जाते हैं, जैसे राग सोहनी तार सप्तक में ज़्यादा खुलता है।
इस राग में कई मशहूर फ़िल्मी गाने भी गाये गये हैं।
सरस्वती चंद्र से- चंदन सा बदन, चंचल चितवन
राम लखन से- बड़ा दुख दीन्हा मेरे लखन ने
चितचोर से- जब दीप जले आना
भीगी रात से- दिल जो न कह सका वो ही राज़े दिल ....आदि।
आइये अब सुनें रशीद खां साहब को उनके तराने के साथ यहाँ क्लिक कर के
और राग यमन में पंडित राजन साजन मिश्र से ये मशहूर बंदिश।
|
Subscribe to:
Posts (Atom)